बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - अभियान राम कथा - अभियाननरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, छठा सोपान
आठ
अशोक वाटिका के द्वार पर बन्दी कर, राक्षस सैनिकों ने हनुमान को अनेक स्थानों पर भटकाया था। बन्दी करने के पश्चात् यद्यपि मेघनाद ने उन्हें सैनिकों को सौंप दिया था, किन्तु किसी-न-किसी रूप में वह निरंतर उनके आसपास बना हुआ था। हनुमान को कुछ आश्चर्य भी हुआ कि एक साधारण कैदी के लिए लंका के युवराज को इस प्रकार अपनी निद्रा का बलिदान करने की क्या आवश्यकता है; किन्तु शायद मेघनाद ने उन्हें साधारण बन्दी नहीं माना था। साधारण बन्दी वे थे भी नहीं-हनुमान समझ रहे थे-उन्होंने अनेक सैनिकों, मत्रिपुत्रों तथा एक राजपुत्र का वध किया था और साथ ही साथ स्वयं को राम का दूत घोषित किया था...किन्तु उन्हें बन्दी कर लेने के पश्चात् तो युवराज विश्राम कर ही सकता था। उन्हें बन्दी कर, एक ही स्थान पर क्यों नहीं रखा गया-यह भी वे समझ नहीं पाए इन स्थानांतरों की अवधि में ही अन्धकार क्षीण होता गया और प्रभात हो गया।...अशोक-वाटिका में किए गए फलाहार के कारण भूख अपनी कष्टप्रद भूमिका छोड़ चुकी थी-किन्तु, निद्रा अपना बल दिखाती, तो उनका सिर भारी हो जाता था। बार-बार हनुमान की इच्छा होती थी कि ये राक्षस सैनिक उन्हें किसी कारागार में डालकर कुछ क्षण आराम कर लें, ताकि हनुमान भी एक नींद ले सकें।...आज का दिन जाने किन परिस्थितियों में बीते और उन्हें कितने बल और उद्यम की आवश्यकता पड़े। ऐसे किसी समय में निद्रा ने अपना प्रभाव दिखाया और उनका मस्तिष्क अथवा शरीर अलसा गया, तो ऐसा न हो कि समय पर उन्हें उपयुक्त बात न सूझे अथवा उनकी स्फूर्ति उन्हें धोखा दे जाए...किन्तु ये सैनिक थे कि उन्हें टिकने ही नहीं दे रहे थे। पहले आदेश का पालन होता कि दूसरा आदेश आ जाता है! राक्षस सैनिकों की टोली बदल जाती। हनुमान का स्थान बदल जाता और ऐसे ही किसी नये स्थान पर मेघनाद पुनः अपनी उपस्थिति का आभास दे जाता।
पता नहीं राक्षसों का कौन-सा अधिकारी इस समय भी अपने कार्यालय में सन्नद्ध बैठा निरन्तर सोच रहा था और आदेश देता जा रहा था। क्या ये आदेश स्वयं मेघनाद ही दे रहा था? और थोड़ी-थोड़ी देर के पश्चात् वह स्वयं यह देखने आता था कि उसके आदेशों का पालन हो रहा है या नहीं? पर वह हनुमान को एक स्थान पर टिकने क्यों नहीं देता?...क्या इसलिए कि हनुमान उस स्थान को निरख-परख कर वहां से अपने भागने का कोई मार्ग न खोज ले? इन राक्षसों की कार्य-पद्धति वे समझ नहीं पा रहे थे। एक और चिंता हनुमान के मस्तिष्क में चल रही थी। उनका बंदी होना एक बात थी, किन्तु राक्षसों का यह जान लेना कि उन्होंने सीता से संदेश का आदान-प्रदान किया है, अच्छा नहीं हुआ। उन्होंने स्वयं ही घोषणा कर दी थी कि वे राम के दूत हैं। इससे सीता के प्रति राक्षसों का व्यवहार और भी कठोर हो सकता है। वे पहले ही बहुत दुखी हैं। इस समय वेअपनी रक्षा में भी सक्षम नहीं थे, सीता की रक्षा क्या करते! लग रहा था, तात्कालिक रूप से अपनी मुक्ति, सीता की मुक्ति से भी अधिक आवश्यक थी। वे मुक्त नहीं हो पाए तो कौन जाकर राम को सीता का समाचार देगा?
सहसा हनुमान का ध्यान सागरतट पर उनकी प्रतीक्षा में बैठे अपने साथियों की ओर चला गया। वे लोग कब तक उनकी प्रतीक्षा करेंगे?...सप्ताह-भर की प्रतिक्षा पर्याप्त है। एक सप्ताह तक हनुमान उनके पास न पहुंचे, तो वे लोग समझ जाएंगे कि हनुमान या तो सागर में डूब गए, या राक्षसों के हाथों मारे गए, अथवा बंदी बनाकर कारागार या अंधकूप में डाल दिए गए...ऐसे में क्या करेंगे वे? क्या उनमें से कोई और सागर-संतरण का साहस करेगा, अथवा वे लोग वापस किष्किंधा लौट जाएंगे? अंगद यदि सागर-संतरण का साहस करें तो अच्छा ही है...कोई साहस न भी करे, तो भी यदि वे लोग सम्पाति द्वारा दी गई सूचना राम तक पहुंचा देते हैं, तो राम अवश्य ही लंका पर आक्रमण करेंगे...
सहसा हनुमान का चिंतन थम गया-ये अब तक केवल आशापूर्ण संभावना के विषय में ही सोच रहे हैं। निराशा की बात तो उन्होंने सोची ही नहीं। यदि कहीं फिर से युवराज अंगद में हताशा का आवेग बढ़ा और उन्होंने निश्चय किया कि वे लोग सीता के संधान में असफल हुए हैं, अतः किष्किंधा नहीं जाना है-तो? यदि यह दल किष्किंधा लौटा ही नहीं, तो राम को कौन बताएगा?-बड़ी भूल हुई हनुमान से। सागर-संतरण से पहले उन्हें अपने दल के अन्य सदस्यों के साथ विचार-विमर्श करके, यह निर्णय करके आना चाहिए था कि यदि वे एक निश्चित अवधि में न लौटें तो दल के सदस्यों का क्या कर्तव्य होगा...
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